प्रियंका गांधी क्या अगली इंदिरा गांधी हो सकती हैं?
साल 1999, रायबरेली. चुनावी मुहिम ज़ोर-शोर से जारी थी. कांग्रेस के उम्मीदवार कैप्टन सतीश शर्मा मैदान में थे तो बीजेपी की तरफ़ से राजीव गांधी के चचेरे भाई अरुण नेहरू.
उस वक़्त 27 साल की एक नौजवान महिला कांग्रेस का प्रचार कर रही थी. उन्हें देखने काफ़ी भीड़ जमा हो जाती थी. अरुण नेहरू रायबरेली से पहले भी चुनाव जीत चुके थे.
अरुण नेहरू की वजह से रायबरेली में बीजेपी के लिए माहौल बनता हुआ दिख रहा था.
ऐसे में उस 27 साल की लड़की ने एक चुनावी रैली के बीचोबीच सवाल पूछा, "मेरे पिता जी से दग़ाबाज़ी करने वालों को आपने यहां पर घुसने कैसे दिया."
उन्होंने आगे कहा, ''क्या आप उन्हें वोट देंगे जिन्होंने मेरे पिता की पीठ में छुरा घोंपा.''
इस बयान की काफ़ी चर्चा हुई और इसकी गूंज दिल्ली तक सुनी गई.
दूसरे दिन अरुण नेहरू के प्रचार के लिए अटल बिहारी वाजपेयी रायबरेली पहुंचे. उन्होंने अपने भाषण में उस लड़की के बयान पर काफ़ी हल्के-फुल्के ढंग से अपनी प्रतिक्रिया दी.
"हमने सुना कि ये किसी का इलाक़ा है. आपने इस आदमी को घुसने कैसे दिया."
इसके बाद चुनाव प्रचार काफ़ी ज़ोर-शोर से चला और कहा जाने लगा कि मुक़ाबला कांटे का हो गया है लेकिन उस एक लाइन ने अमेठी-रायबरेली चुनाव की कहानी बदल दी थी.
नतीजे आने के बाद इसका पता चला.
शुरु में कांटे की टक्कर देने वाले अरुण नेहरू चौथे नंबर पर चले गए और कांग्रेस के कैप्टन सतीश शर्मा जीत गए. कैप्टन सतीश शर्मा के लिए प्रचार करने वाली ये लड़की थीं प्रियंका गांधी.
बुधवार को प्रियंका गांधी औपचारिक तौर पर सक्रिय राजनीति में आ गईं. नरेंद्र मोदी और बीजेपी का गढ़ माने जाने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश पूर्वांचल की ज़िम्मेदारी प्रियंका को सौंपी गई है.
बुधवार का पूरा दिन मीडिया में इंदिरा गांधी और प्रियंका गांधी के बीच समानताओं पर बात चलती रही.
दोनों के पहनावे, चाल-ढाल, आक्रामकता, वाक़पटुता और तंज भरे लहज़े में बात कहने की कला, जैसे पहलुओं पर दिन भर लोग बात करते रहे.
और ये सवाल उठा कि क्या प्रियंका गांधी इंदिरा की तरह प्रियदर्शीनी हैं. क्या वे इंदिरा की तरह राजनीति में अपना असर छोड़ने में कामयाब हो पाएंगी.
राजनीतिक विश्लेषक राशीद किदवई कहते हैं, "इंदिरा गांधी के ज़माने में अलग तरह से राजनीति होती थी, चुनौतियां भी अलग थीं. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी का काम करने का तरीका अलग था.''
''उनकी राजनीति का ढंग भी अलग था. साथ ही उनका लोगों के बीच जाकर उन्हें समझने का तरीका भी अलग था. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के बीच भी इसी तरह फ़र्क था, वही फर्क राजीव गांधी और सोनिया गांधी की कार्यशैली में भी है. ऐसे में इंदिरा गांधी और प्रियंका की राजनीति की प्रकृति और शैली में भी अंतर है."
किदवई आगे कहते हैं, "इंदिरा और प्रियंका के पहनावे में बहुत समानता है. उनकी बहुत सारी चीज़ें एक जैसी हैं. वह कहते हैं कि इंदिरा लोगों को अपनी-सी लगती थीं. वह सहजता से लोगों में घुलमिलकर बातें करती थीं.''
इंदिरा के चेहरे पर लोगों को ऐसी उम्मीद नज़र आती थी कि वह देश के लिए कुछ कर सकती हैं. उनमें विनम्रता भी थी. प्रियंका इन चीज़ों में इंदिरा से काफ़ी मिलती-जुलती हैं. वह भी लोगों से अच्छे से बातें करती हैं.
उत्तर प्रदेश में इंदिरा गांधी की जो अपील थी लोगों के बीच, वैसी ही अपील प्रियंका की है. ऐसे में प्रियंका के आने के कारण उत्तर प्रदेश में कुछ फ़र्क तो नज़र आएगा. वहां पर बड़ा हिस्सा ऐसा है जो अभी भी इंदिरा गांधी को मानता है. प्रियंका के चेहरा, उनकी शैली और पहनवाने से लोगों को ऐसा लगेगा कि इंदिरा उनके बीच हैं."
उस वक़्त 27 साल की एक नौजवान महिला कांग्रेस का प्रचार कर रही थी. उन्हें देखने काफ़ी भीड़ जमा हो जाती थी. अरुण नेहरू रायबरेली से पहले भी चुनाव जीत चुके थे.
अरुण नेहरू की वजह से रायबरेली में बीजेपी के लिए माहौल बनता हुआ दिख रहा था.
ऐसे में उस 27 साल की लड़की ने एक चुनावी रैली के बीचोबीच सवाल पूछा, "मेरे पिता जी से दग़ाबाज़ी करने वालों को आपने यहां पर घुसने कैसे दिया."
उन्होंने आगे कहा, ''क्या आप उन्हें वोट देंगे जिन्होंने मेरे पिता की पीठ में छुरा घोंपा.''
इस बयान की काफ़ी चर्चा हुई और इसकी गूंज दिल्ली तक सुनी गई.
दूसरे दिन अरुण नेहरू के प्रचार के लिए अटल बिहारी वाजपेयी रायबरेली पहुंचे. उन्होंने अपने भाषण में उस लड़की के बयान पर काफ़ी हल्के-फुल्के ढंग से अपनी प्रतिक्रिया दी.
"हमने सुना कि ये किसी का इलाक़ा है. आपने इस आदमी को घुसने कैसे दिया."
इसके बाद चुनाव प्रचार काफ़ी ज़ोर-शोर से चला और कहा जाने लगा कि मुक़ाबला कांटे का हो गया है लेकिन उस एक लाइन ने अमेठी-रायबरेली चुनाव की कहानी बदल दी थी.
नतीजे आने के बाद इसका पता चला.
शुरु में कांटे की टक्कर देने वाले अरुण नेहरू चौथे नंबर पर चले गए और कांग्रेस के कैप्टन सतीश शर्मा जीत गए. कैप्टन सतीश शर्मा के लिए प्रचार करने वाली ये लड़की थीं प्रियंका गांधी.
बुधवार को प्रियंका गांधी औपचारिक तौर पर सक्रिय राजनीति में आ गईं. नरेंद्र मोदी और बीजेपी का गढ़ माने जाने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश पूर्वांचल की ज़िम्मेदारी प्रियंका को सौंपी गई है.
बुधवार का पूरा दिन मीडिया में इंदिरा गांधी और प्रियंका गांधी के बीच समानताओं पर बात चलती रही.
दोनों के पहनावे, चाल-ढाल, आक्रामकता, वाक़पटुता और तंज भरे लहज़े में बात कहने की कला, जैसे पहलुओं पर दिन भर लोग बात करते रहे.
और ये सवाल उठा कि क्या प्रियंका गांधी इंदिरा की तरह प्रियदर्शीनी हैं. क्या वे इंदिरा की तरह राजनीति में अपना असर छोड़ने में कामयाब हो पाएंगी.
राजनीतिक विश्लेषक राशीद किदवई कहते हैं, "इंदिरा गांधी के ज़माने में अलग तरह से राजनीति होती थी, चुनौतियां भी अलग थीं. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी का काम करने का तरीका अलग था.''
''उनकी राजनीति का ढंग भी अलग था. साथ ही उनका लोगों के बीच जाकर उन्हें समझने का तरीका भी अलग था. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के बीच भी इसी तरह फ़र्क था, वही फर्क राजीव गांधी और सोनिया गांधी की कार्यशैली में भी है. ऐसे में इंदिरा गांधी और प्रियंका की राजनीति की प्रकृति और शैली में भी अंतर है."
किदवई आगे कहते हैं, "इंदिरा और प्रियंका के पहनावे में बहुत समानता है. उनकी बहुत सारी चीज़ें एक जैसी हैं. वह कहते हैं कि इंदिरा लोगों को अपनी-सी लगती थीं. वह सहजता से लोगों में घुलमिलकर बातें करती थीं.''
इंदिरा के चेहरे पर लोगों को ऐसी उम्मीद नज़र आती थी कि वह देश के लिए कुछ कर सकती हैं. उनमें विनम्रता भी थी. प्रियंका इन चीज़ों में इंदिरा से काफ़ी मिलती-जुलती हैं. वह भी लोगों से अच्छे से बातें करती हैं.
उत्तर प्रदेश में इंदिरा गांधी की जो अपील थी लोगों के बीच, वैसी ही अपील प्रियंका की है. ऐसे में प्रियंका के आने के कारण उत्तर प्रदेश में कुछ फ़र्क तो नज़र आएगा. वहां पर बड़ा हिस्सा ऐसा है जो अभी भी इंदिरा गांधी को मानता है. प्रियंका के चेहरा, उनकी शैली और पहनवाने से लोगों को ऐसा लगेगा कि इंदिरा उनके बीच हैं."
Comments
Post a Comment